आखिर लोकतंत्र के चौथे स्तंभ के साथ यह सौतेला व्यव्हार क्यों.?

गाजियाबाद। लायक हुसैन। बात पते की, सरकार को इस ओर ध्यान देना चाहिए, आपको समझना होगा कि विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका व पत्रकारिता (मीडिया) यह चारों लोकतंत्र के वह स्तंभ हैं जो उसे संभालकर रखते हैं, राष्ट्र की समृद्धि के लिए दिशा और उसे गति प्रदान करते हैं। लोकतंत्र के इन चारों पायों में शामिल बात मीडिया जगत की करें तो किसी को भी आसमान छू लेने जैसी सोहरत दिलाने में एक अहम भूमिका निभाने एवं समाज को सत्यता का आईना दिखाने वाले इस चौथे स्तंभ की आखिर अनदेखी करने वाली विधायिका (सरकार) हमेशा उसे मजबूती प्रदान करने से बचती नजर आती है इस स्तंभ के प्रति उसका यह सौतेला व्यवहार वास्तव में एक गंभीर चिंतन का विषय है,
लोकतंत्र का पहला स्तंभ विधायिका का है, जनता द्वारा चुने गए महत्वपूर्ण व्यक्ति विधायिका के रूप में कानून का निर्माण करते हैं और पूरी जिम्मेदारी लेते हैं कि उनके द्वारा बनाए जाने वाला कानून प्रत्येक दृष्टिकोण से जनता के हित में हो तथा किसी भी समुदाय का शोषण करने वाला न हो जो शासक व प्रजा दोनों के लिए मान्य होता है। मगर न जाने क्यों इस स्तंभ द्वारा स्वयं ही चौथे स्तंभ (मीडिया) के साथ हमेशा सौतेला व्यवहार होता चला आ रहा है। गौरतलब हो कि जनसेवक कहे जाने वाले विधायक या सांसद को पेंशन व अनेक प्रकार के भत्ता देने के नाम पर करोड़ों रुपयों का सरकारी खजाना लुटाया जा रहा है। पेट्रोल, डीजल, पर्सनल असिस्टेंट की फीस, इलाज खर्च, मोबाइल खर्च, रहने, खाने-पीने, अपने क्षेत्र में आने-जाने आदि के सभी खर्च का भुगतान सरकारी खजाने से ही होता है मगर अपनी जान जोखिम में डालकर समाज हित, देश हित के लिए एक दर्पण के रूप में दिन-रात समर्पित रहने वाले पत्रकार को प्रतिमाह आर्थिक सुविधा या पेंशन देने के नाम पर सरकार के पास कोई प्रावधान नहीं है। यहां तक कि कोई भी सरकारी पंचायत में उसके किसी नुमाइंदे द्वारा इस गंभीर विषय पर चर्चा तक नहीं की जाती। जिसे कहीं ना कहीं स्वयं मीडिया जगत की कमजोरी भी कहा जा सकता है।
माना कि अपनी ईमानदारी व कर्तव्य निष्ठा से भटके विभिन्न विभागों के कुछ कर्मचारियों की भांति चौथे स्तंभ (मीडिया) से जुड़े किन्हीं लोगों की दिशाहीन कार्यप्रणाली के चलते कोई भी उस पर उंगली उठाने का मौका ढूंढ लेता है जिसके कारण समस्त मीडिया परिवार अपने हितों की लड़ाई में कमजोर पड़ जाता है। हालांकि जरूरत इस बात की है की ऐसे लोगों को दरकिनार कर, इस लड़ाई को मजबूती से लड़ने के लिए हम अपनी बुद्धिमता और एकजुटता का परिचय दें और यह बात नहीं भूलना चाहिए कि एक समय ऐसा था जब बड़े-बड़े अधिकारी जनप्रतिनिधि इत्यादि पत्रकारों से मिलने के लिए समय लेते थे, लेकिन आज इस क्षेत्र से जुड़े कुछ लोग स्वयं ही उनके आगे-पीछे घूमते हुए देखे जा सकते हैं जिनकी ऐसी मानसिकता के चलते ही इस स्तंभ को अपेक्षाकृत सम्मान नहीं मिल पाता। अब देखिए कि यह कितनी दुख भरी दास्तां है, आखिर कहां गई कलम की वह ताकत जिसमे सत्यता, निर्भीकता जैसी कर्तव्यनिष्ठा पत्रकारों की खुद्दारी झलकती थी। मगर आज इस सम्मानित और पवित्र पेशे से जुड़े, अपने को पत्रकार कहने का दावा करने वाले ऐसे लोग बड़े आराम से देखने को मिल जाते हैं जिन्हें पत्रकारिता से कहीं अधिक अधिकारियों की चापलूसी और दलाली करना आती है। सच तो यह है कि अधिकांश अधिकारियों व जन नेताओं को भी कुछ ऐसे ही पत्रकारों की जरूरत होती है जो उनकी इस कमजोरी का लाभ उठाकर अपना स्वार्थ सिद्ध करते हैं। जिसके जीते जागते सुबूत अनेकों बार देखने और सुनने को मिलते रहते हैं परंतु यह भी एक बहुत बड़ी वजह है कि सरकार मीडिया जगत के हितों को लेकर कभी संवेदनशील नजर नहीं आती। जबकि इसे उचित नहीं ठहराया जा सकता। हास्यप्रद बात तो यह है कि कुछ लोगों की घटिया कारगुजारी के चलते इस चौथे स्तंभ से जुड़े अन्य समस्त बुद्धिजीवी मीडिया जगत के हितों को वह सरकार दरकिनार करती आ रही है जो अपने एमएलए, एमपी को विभिन्न प्रकार के भत्ते देने के नाम पर जनता से विभिन्न कर के नाम पर लिया गया करोड़ों रुपए का सरकारी धन बर्बाद करती आ रही है। यही नहीं 5 साल के लिए राजनीति जीतकर आने पर उन्हे पेंशन मिलना भी तय है जबकि उनमें एक संख्या ऐसे जनप्रतिनिधियों की होती है जो अपने कार्यक्षेत्र से संबंधित जानकारी या अन्य योग्यता भी शून्य के समान रखते हैं। बावजूद इसके जनता का सेवक कहे जाने वाले इन जनप्रतिनिधियों को सरकारी खजाने का भरपूर लाभ मिल रहा है जबकि दूसरी ओर लोकतंत्र के चौथे स्तंभ (मीडिया) के प्रति उपेक्षा बरती जा रही है और सरकार है कि वह सब कुछ जानते हुए भी मीडिया हित के मुद्दों की अनदेखी करती आई है जिसे किसी भी सूरत में न्याय संगत नहीं कहा जा सकता। इस गंभीर प्रकरण में जहां चौथे स्तंभ के कर्णधारों को जागरूक होने की आवश्यकता है। वहीं देश का नेतृत्व कर रहे प्रधान को भी इस विषय पर गंभीरता से सोचने की जरूरत है कि आखिर लोकतंत्र के चौथे स्तंभ मीडिया के साथ यह सोतेला व्यवहार क्यों।

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