15 मार्च को मंगल प्रदोष व्रत, जानिए शुभ मुहूर्त, पूजा विधि और कथा

हिंदू पंचांग के अनुसार, हर माह की त्रयोदशी तिथि को भगवान शिव को समर्पित होता है। हर माह की कृष्ण पक्ष और शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी तिथि को प्रदोष व्रत रखने का विधान है। इसी तरह फाल्गुन माह की कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी तिथि 15 मार्च को पड़ रही हैं। इस दिन भगवान शिव की विधि-विधान से पूजा करने के साथ व्रत रखा जाएगा। मंगलवार के दिन पड़ने के कारण इसे मंगल प्रदोष व्रत या भौम प्रदोष के नाम से जाना जाता है।मान्यता है कि जो व्यक्ति भौम प्रदोष व्रत रखता हैं उसे कर्ज से छुटकारा मिलने के साथ रोगों से निजात मिलती है। इसके साथ ही जीवन में सुख,-समृद्धि, संतान आदि की प्राप्ति होती है। जानिए मंगल प्रदोष व्रत का शुभ मुहूर्त पूजा विधि और व्रत कथा।
मंगल प्रदोष व्रत का शुभ मुहूर्त
त्रयोदशी तिथि का प्रारंभ: 15 मार्च, मंगलवार को दोपहर 01 बजकर 12 मिनट पर से शुरू
त्रयोदशी तिथि का समाप्त: 16 मार्च बुधवार को दोपहर 01 बजकर 39 मिनट तक
प्रदोष काल: 15 मार्च शाम 06 बजकर 29 मिनट से रात 08 बजकर 53 मिनट तक
मंगल प्रदोष व्रत पूजा विधि
15 मार्च को ब्रह्म मुहूर्त में उठकर सभी कामों से निवृत्त होकर स्नान कर लें। इसके बाद भगवान शिव का स्मरण करते हुए व्रत का संकल्प करें और दिनभर बिना अन्न ग्रहण किए व्रत रखें। शाम के समय स्नान आदि करने के साथ सफेद रंग के वस्त्र धारण कर लें। इसके बाद ईशान कोण यानी उत्तर-पूर्व दिशा की ओर की थोड़ी सी जगह को साफ करके गंगाजल छिड़क दें। इसके बाद 5 रंगों के फूलों या फिर आपको जितने रंग मिले उनसे रंगोली बना लें और उसके ऊपर भगवान शिव और माता पार्वती की मूर्ति या तस्वीर स्थापित कर दें। इसके बाद आप भी कुश बिछाकर बैठ जाएं और भगवान शिव की पूजा प्रारंभ करें। सबसे पहले गंगाजल अर्पित करें और फिर पुष्प, बेलपत्र, धतूरा, चंदन, अक्षत आदि अर्पित करें। इसके बाद भोग में कोई मिठाई अर्पित करते हुए जल चढ़ाएं। इसके बाद दीपक और धूप जला दें और फिर शिव चालीसा और कथा पढ़ें। इसके बाद विधिवत तरीके से आरती कर लें और आपके द्वारा की गई गलतियों के लिए क्षमा मांग लें। आरती आदि कर के प्रसाद सभी को बांट दें।मंगल
प्रदोष व्रत कथा
स्कंद पुराण के अनुसार, प्राचीन काल में एक विधवा ब्राह्मणी अपने पुत्र को लेकर भिक्षा लेने जाती थी और संध्या को वापस लौट आती थी। एक दिन जब वह भिक्षा लेकर लौट रही थी तभी उसे नदी किनारे एक सुन्दर बालक दिखाई दिया जो विदर्भ देश का राजकुमार धर्मगुप्त था। शत्रुओं ने उसके पिता को मारकर उसका राज्य हड़प लिया था। उसकी माता की मृत्यु भी अकाल हुई थी। ब्राह्मणी ने उस बालक को अपना लिया और उसका पालन-पोषण किया।कुछ समय पश्चात ब्राह्मणी दोनों बालकों के साथ देवयोग से देव मंदिर गई। वहां उनकी भेंट ऋषि शांडिल्य से हुई। ऋषि शांडिल्य ने ब्राह्मणी को बताया कि जो बालक उन्हें मिला है वह विदर्भ देश के राजा का पुत्र है जो युद्ध में मारे गए थे और उनकी माता को ग्राह ने अपना भोजन बना लिया था। ऋषि शांडिल्य ने ब्राह्मणी को प्रदोष व्रत करने की सलाह दी। ऋषि आज्ञा से दोनों बालकों ने भी प्रदोष व्रत करना शुरू किया।एक दिन दोनों बालक वन में घूम रहे थे तभी उन्हें कुछ गंधर्व कन्याएं नजर आई। ब्राह्मण बालक तो घर लौट आया किंतु राजकुमार धर्मगुप्त अंशुमती नाम की गंधर्व कन्या से बात करने लगा। गंधर्व कन्या और राजकुमार एक दूसरे पर मोहित हो गए, गंधर्व कन्या ने विवाह करने के लिए राजकुमार को अपने पिता से मिलने के लिए बुलाया। दूसरे दिन जब वह दोबारा गंधर्व कन्या से मिलने आया तो गंधर्व कन्या के पिता ने बताया कि वह विदर्भ देश का राजकुमार है। भगवान शिव की आज्ञा से गंधर्वराज ने अपनी पुत्री का विवाह राजकुमार धर्मगुप्त से कराया।इसके बाद राजकुमार धर्मगुप्त ने गंधर्व सेना की सहायता से विदर्भ देश पर पुनः आधिपत्य प्राप्त किया। यह सब ब्राह्मणी और राजकुमार धर्मगुप्त के प्रदोष व्रत करने का फल था। स्कंदपुराण के अनुसार जो भक्त प्रदोष व्रत के दिन भगवान शिव की पूजा के बाद एक्राग होकर प्रदोष व्रत कथा सुनता या पढ़ता है उसे सौ जन्मों तक कभी दरिद्रता नहीं होती।

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